وقربني منه وأخشى بعاده |
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فرب اقتراب جر من بعده بعدا |
كسهم الرمايا كلما ازداد قربه |
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إلى صدر راميه تباعد وامتدا |
ومنها :
ترى تمتري عشب الحجاز رواحلي |
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وتلطم أيديها وجوه الفلا وخدا |
وله من نبوية أخرى :
ما زلت حسانا له ولبيته |
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ولصخر ذاك البيت كالخنساء |
أبكي البقيع وساكنيه وليتني |
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كنت المخضّب دونهم بدماء |
وله من أخرى :
مذ نشرت صحيفة البيد سرى |
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رسمت بالمنسم واوا للنوى |
ومن أخرى :
هاب القريض مديحه |
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فانشق أنصافا سطوره |
وهو معنى مبتكر لطيف إلى الغاية. وله :
أيها الريم هل تريم بنظره |
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علّ يصحو الفؤاد من بعد سكره |
بأبي أنت غصن بان تثنّى |
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وغدا يمزج الدلال بخطره |
ألف القدّ زانها نقطة الخا |
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ل فأضحى وواحد الحسن عشرة |
قلت : هي حسنة والحسنة بعشر أمثالها :
شارب أخضر وبيض ثنايا |
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سوّدا وجه عيشتي بعد خضره |
أنت زهر غض وقلبي كمام |
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فلماذا أوقدت بيتك جمره (١) |
قلت : ومن شعره قوله :
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(١) أورد في الريحانة بعد هذه الأبيات ثلاثة أبيات وهي :
زرعت مقلتي بخديك وردا |
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فأبحني قطاف زرعي زهره |
يا أبا عذرة الملاحة إني |
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بين موتي هواك من حي عذره |
كعبة الحسن كل وقت إليها |
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في ركاب المنى أحج بفكره |