يا هبّة باكرت من نحو دارين |
|
وافت إليّ على بعد تحيّيني |
سرت على صفحات النّهر ناشرة |
|
جناحها بين خيريّ ونسرين |
ردّت إلى جسدي روح الحياة وما |
|
خلت النّسيم إذا ما متّ يحييني |
لو لا تنسّمها من نشر أرضكم |
|
ما أصبحت من أليم الوجد تبريني |
مرّت على عقدات الرّمل حاملة |
|
من سرّكم خبرا بالوحي يشفيني |
عرفت من عرفه ما كنت أجهله |
|
لمّا تبسّم في تلك الميادين(١) |
نزوت من طرب لمّا هفا سحرا |
|
وظلّ ينشرني طورا ويطويني |
خلت الشّمال شمولا إذ سكرت بها |
|
سكرا بما لست أرجوه يمنّيني |
أهدت إليّ أريجا من شمائلكم |
|
فقلت : قرّبني من كان يقصيني |
وخلت من طمع أنّ اللّقاء على |
|
إثر النّسيم وأضحى الشّوق يحدوني |
فظلت ألثم من تعظيم حقّكم |
|
مجرّ أذيالها والوجد يغريني |
مسارح كم بها سرّحت من كمد |
|
قلبي وطرفي ولا سلوان يثنيني |
بين المصلّى إلى وادي العقيق وما |
|
يزال مثل اسمه مذ بان يبكيني |
إلى الرّصافة فالمرج النّضير فوا |
|
دي الدّير فالعطف من بطحاء عبدون |
لباب عبد سقته السّحب وابلها |
|
فلم يزل بكؤوس الأنس يسقيني |
لا باعد الله عيني عن منازهه |
|
ولا يقرّب لها أبواب جيرون |
حاشا لها من محلات مفارقة |
|
من شيّق دونها في القرب محزون |
أين المسير ورزق الله أدركه |
|
من دون جهد وتأميل يعنّيني |
يا من يزيّن لي التّرحال عن بلدي |
|
كم ذا تحاول نسلا عند عنّين |
وأين يعدل عن أرجاء قرطبة |
|
من شاء يظفر بالدّنيا وبالدّين |
قطر فسيح ونهر ما به كدر |
|
حفّت بشطّيه ألفاف البساتين(٢) |
يا ليت لي عمر نوح في إقامتها |
|
وأنّ مالي فيه كنز قارون |
كلاهما كنت أفنيه على نشوا |
|
ت الرّاح نهبا ووصل الحور والعين (٣) |
__________________
(١) في ب : ما لست أجهله .. لما تنسّم.
(٢) ألفاف البساتين : جمع لفّ ، وهو البستان الكثيف الشجر.
(٣) في ب ، ه : ووصل الخرّد العين.