ألا فاعلموا أني لكم غير صابر |
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على لومكم أخرى الليالي الغوابر |
فعوجوا بني اللّخناء نحو هجائكم |
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إلى لعنة تزري بمن في المقابر |
فأنتم سننتم كلّ محدث سبّة |
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ولم تتركوا فيها لحاقا لآخر |
رأيتكم لا تتّقون مذمّة |
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ولا عندكم من هزّة نحو شاكر |
وأهون ما أهدى الزمان إليكم |
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ـ فلا عشتم للّوم ـ طلعة شاعر |
فأين الألى كانوا إذا جاء ناظم |
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تلقّته منهم بالنّدى كفّ ناثر |
سلام عليهم كلّما ارتحت نحوهم |
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فلا أثر من بعدهم للمآثر |
أعيّركم جهدي بكل قبيحة |
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وما لكم من يقظة بالمعاير |
ركنتم إلى الأعذار في كل حاجة |
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فهل نفعت نبلي حصون المعاذر |
وقوله :
ألا لا تركنّن إلى فلان |
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فتسري منه لي ليل السّليم |
لئيم ليس ينفع فيه لؤم |
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يروم وراثة العرق اللئيم |
إذا جرّبته يوما تراه |
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مضاع الجار ممطول الغريم |
وإن كشّفته لاقيت منه |
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مصون المال مبذول الحريم |
وقوله :
وأحدب ليس له همّة |
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ولا لذّة في سوى فيشة |
يقول أنا القوس في شكله |
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فلا تنكروا السهم في بدرتي |
فضولكم أبدا زائد |
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أفقحتكم تلك أم فقحتي |
وقوله في ابن له :
الحق أبلج ليس أنت وحقّ من |
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أحيا بك الأجلاف ممّن يفلح |
لا تهتدي بفضيلة لا ترعوي |
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بملامة لا أنت ممن يصلح |
يزداد عقلك ما كبرت تناقصا |
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وتلجّ في صمم إذا ما تنصح |
يزداد عقلك ما كبرت تناقضا |
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وتلجّ في صمم إذا ما تنصح |
أكل وسلح كلّ حين لا ترى |
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لسواهما ما دمت حيّا تطمح |
أسخنت عين المجديا ابن عميرة |
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ولقد تقرّ عيونه لو تذبح |
وقوله :
قطيم يغلق أبوابه |
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ويفرح بالبيت مهما خلا |