السيد جواد مرتضى
المتوفى ١٣٤١
حتى مَ مِن سكر
الهوى |
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أبداً فؤادك غير
صاحي |
فنيَ الزمان ولا
أرى |
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لقديم غيّك من
براح |
يمّم قلوصك
للسرى |
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واشدد ركابك
للرواح |
ما الدهر إلا
ليلة |
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ولسوف تسفر عن
صباح |
قم واغتنمها
فرصة |
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كادت تطير بلا
جناح |
مت قبل موتك
حسرة |
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فعساك تظفر
بالنجاح |
أو ما سمعت
بحادث |
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ملأ العوالم
بالنياح |
حيث الحسين
بكربلا |
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بين الأسنة
والرماح |
يغشى الوغى
بفوارس |
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شوس تهيج لدى
الكفاح |
متقلدين
عَزائماً |
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أمضى من البيض
الصفاح |
وصل المنية
عندهم |
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أحلى من الخود
الرداح |
يتدافعون إلى
الوغى |
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فكأنهم سيل
البطاح |
هتفت منيتهم بهم |
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فتقدموا نحو
الصياح |
وثووا على وجه
الصعي |
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د كأنهم جزر
الأضاحي |
قد غسلوا بدم
الطلا |
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بدلاً عن الماء
القراح |