وفتيان مصاليت كرام |
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صحبتهم على خوض الظّلام |
وقد خفق النّعاس بهم فمالوا |
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به ميل النزيف من المدام |
وكلّ تحته هو جاء تمطو |
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سوالفها بإرخاء الزّمام |
سريت بهم وللظلماء سجف |
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يمزّقه ببارقه حسامي |
أجرّ ذوابلي من أرض نجد |
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خلال مجرّ أذيال الغمام |
على ميثاء رفّ بها الخزامى |
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فأضحى الزهر مفضوض الختام |
تلفّ غصونها ريح بليل |
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فيعتنق الأراك مع البشام |
ألا يا صاحبيّ استروحاها |
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شآميّة فمن أهوى شآم |
عسى نفس النّعامى بعد وهن |
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يبشّر من سليمى بالسّلام |
وقوله :
وليل قطعت دياجيره |
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بعذراء حمراء كالعندم |
أدبرت كواكب أقداحها |
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عليّ فأغربتها في فمي |
فقال وقد طار من خيفة |
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وإصباحه واضح المبسم |
رأيتك تشرب زهر النجوم |
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فولّيت خوفا على أنجمي |
وقوله : [الطويل]
ووافى كمثل الصّبح عريان كلما |
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تكذّبه عين البصير يبين |
وقد كان بالسّمر الذوابل في الوغى |
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مصونا كما صان العيون جفون |
وقوله : [الكامل]
ولقد تروعهم الكواكب رهبة |
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لمّا حكين أسنّة المرّان |
ولربما عطشوا فحلّاهم عن ال |
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غدرة اشباه البيض بالغدران |
والسّيف دامي المضربين كجدول |
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في ضفّتيه شقائق النعمان |
ومنها :
ما لاح في الهيجاء نجم مثقّف |
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وهلال كلّ حنيّة مرنان |
وقوله : [الوافر]
دع الخطّيّ يثني معطفيه |
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فإنّ لأسهمي فضلا عليه |
إذا كان العلا قتل الأعادي |
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أيفضل غير أسرعنا إليه |