ما خلت الحسناء يوما به |
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تيها (١) ولا قالت له هيت لك |
إن قطّعت أيدي نساء له |
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فكم قلوب قطّع الناس لك |
الأهداب
موشّحة لابن حريق :
سل حارسي روضه الجمال |
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وصولجي ذلك العذار |
من توّج الغصن بالهلال |
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وأنبت الورد في البهار |
أيّ أقاح وجلّنار |
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حاما على منهل الرّضاب |
وأيّ صلّين من عذار |
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دبّا كلامين في كتاب |
وأيّ ماء وأيّ نار |
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ضمّتهما نعمة الشباب |
فقل حيا مورد زلال |
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يحرسه الثغر بالشّفار |
وقل جنان وقل لآل |
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يعلّ بالمسك والعقار |
من لي به والمنى غرور |
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وسنان طاوي الحشا غرير |
النّور من خدّه منير |
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على فؤادي ولا نصير |
يا نفس ما منك بالوصال |
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بدّ ولا منّي انتصار |
فقد دعا جفنه نزال |
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فأين من فتكه الفرار |
يا قلبي المبتلي بحبّه |
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باعتك عيني بلا شرا |
من باخل في الهوى بقربه |
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حتى على الطيف بالكرى |
صبرا على هجره وعتبه |
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فليس إلا الذي ترى |
لعل رفقا من الوصال |
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يدال من قسوة النّفار |
أو بعض ما تحدث الليال |
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يفك من ذلك الإسار |
وناصح قال يا غريب |
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أسرفت في البثّ والحزن |
للمرء من دمعه نصيب |
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والروح ما إن له ثمن |
ويحك لا عيشة تطيب |
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ولا نديم ولا سكن |
فخلّ عينيّ في انهمال |
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يقر للدّمع من قرار |
وابك معي رقّة لحالي |
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بكاء غيلان في الديار |
جعلت لبس الهوى شعارا |
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واختلت في برده القشيب |
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(١) في الزاد : ... في خدرها به ...