أشبه فيها ليله يومه |
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حتى استوى الأدهم والأشهب |
سروره بعدكم ترحة |
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وصبحه بعدكم غيهب |
ناشدتك الله نسيم الصّبا |
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أين (١) استقلّت بعدنا زينب |
لم تسر (٢) إلّا بشذا عرفها |
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أو لا فماذا النّفس الطّيّب |
ويا سحاب المزن ما بالنا |
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يشوقنا ذيلك إذ تسحب |
هات حديثا عن مغاني اللّوى |
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فعهدك اليوم بها أقرب |
إيه وإن عذّبني ذكرها (٣) |
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فمن عذاب النفس ما يعذب |
هل لعبت بالعرصات الصّبا |
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فعجّ منها للصّبا ملعب |
أم ضرّها سقياك إذ جدتها |
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كم غص ظمآن بما يشرب |
يا من شكا من زمن قسوة |
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أين السّرى والعيس والسّبسب |
أفلح من خاض بحار الدّجى |
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وصهوة العزّ له مركب |
أليس في البيداء مندوحة |
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إن ضاق يوما بالفتى مذهب |
لأخبط الليل ولو أنّه |
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ذو لبد أو حيّة تلسب |
تحمل كورى فيه عيرانة |
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إلى سوى مهرة لا تنسب |
وإنما يعرف سبل العلى |
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يسلكها الأنجب فالأنجب |
إن كان للفضل أب إنّه |
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نجل بني عبد العزيز الأب |
المنتضى من حجرات الألى |
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على السّماكين لهم منصب |
ومنها في السيف :
يبتزّ عن صفحته غمده |
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كما انجلى عن مائه الطّحلب |
وفي الفرس (٤) : [السريع]
يخترق النّقع على أشقر |
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ينقضّ منه في الوغى كوكب |
تطير في الحضر به أربع |
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يطوى لها المشرق والمغرب |
له تليل مثل ما ينثني |
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غصن به ريح الصّبا تلعب |
يجيل في صهوته ضيغما |
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ليس سوى السيف له مخلب |
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(١) في النفح : أنّى. وفي الديوان : أين استقرّت.
(٢) في النفح : لم نسر.
(٣) في النفح : حبّها.
(٤) الأبيات في كتاب السفينة ببعض الاختلاف عمّا هنا.