الشيخ ذبيح الله المحلاتي
المحقق: محمّد شعاع فاخر
الموضوع : التراجم
الناشر: انتشارات المكتبة الحيدريّة
المطبعة: شريعت
الطبعة: ١
ISBN: 978-964-503-145-7
ISBN الدورة:
الصفحات: ٤٩٥
مللت الحياة فيا حبّذا |
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هلاكي سريعاً مع الهالكين |
وقد فقدت مقلتاي الضياء |
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وجار عليّ زمان مشين |
ونادت إلهي أعد أكبري |
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سليماً من القتل في العاندين |
وله أيضاً
نظمها في مبارزة عليّ الأكبر :
ايا فرقهٴ فارق از ننگ و نام |
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نهاديد بر کفر اسلام نام |
روا نيست اى قوم بيرون زدين |
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مسلمانى و کفر محض اين چنين |
شما شرک يزدان و کين رسول |
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نموديد در عالم ذر قبول |
نه ما آخر اولاد پيغمبريم |
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برازندهٴ خلقت داوريم |
کسى کو بود عرش را زيب و زين |
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حسين است و اولاد پاک حسين |
يزيد ستمگر ز آل زناست |
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خلافت زنازاده را کى رواست |
خلافت بود حقّ شأن حسين |
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ايا ظالمان دودمان حسين |
براى زنازادهاى شد بباد |
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که لعنت بر آن اصل ناپاک باد |
منم آنکه جدّم رسول خداست |
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که سر خيل وسر حلقهٴ انبياست |
منم آنکه آن درّينه عمرانيم |
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بروز وغا حيدر ثانيم |
مرا بر ميان دوالفار على است |
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مرا افتخار از نبى و وليست |
ز شير خدا شاه بدر حنين |
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شجاعت بود ارث بابم حسين |
شجاعت به من از پدر منتهى است |
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بشيران در افتادن از ابلهيست |
چه گيرم بکف رمح خوارا شکاف |
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سپهر زمين سينه درزد در زقاف |
نمى لافم اى ابن سعد لعين |
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گر انکار دارى بيا و ببين |
چه شمشير کين بر کشم از نقاب |
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شود زهر شير در بيشه آب |
منم آنکه بر سروران سرورم |
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شبيه پيغمبر على اکبرم |
چنين خون بريزم در اين دشت کين |
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که گويد جهان آفرين آفرين |
بگفت اين وبر آن سپاه غرور |
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زهل من مبارز درافکند شور |
مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب معناه :
يا فرقة مُلئت بالعار ساحتها |
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وفي مساوئها قد ضجّ واديها |
سمّيتم الكفر إسلاماً مراغمة |
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هيهات ما الاسم من ذا العار يحميها |
هل تستقيم مع الإسلام مفسدة |
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الفسق حافظها والكفر راعيها |
الشرك والبغض للمختار عندكم |
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أدنى إلى المال للأحلام يصبيها |
هل تجهلون بأنا من نبيّكم |
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فروع دوحته طابت مغانيها |
هل تعلمون لهذا الفرع من شبه |
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في هذه الأرض قاصيها ودانيها |
من زيّن العرش بالأنوار ساطعة |
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تنوّر الملأ الأعلى لئاليها |
إنّ الحسين وأبناء الحسين هم |
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للعرش زينته والله باريها |
خلافة الله ليست لابن زانية |
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الله من دنس الأوغاد ينجيها |
يزيد طاغية ما الرشد شيمته |
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كم شيمة خبثت قد كان يبديها |
لابن الزنا العار يطويه وينشره |
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لا للخلافة يمسي حاكماً فيها |
بل الحسين لها طابت شمائله |
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تختال أيّامها في حكمه تيها |
ابن النبيّ رسول الله نزّههه |
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ربّ براه على الأكوان تنزيها |
يقول جدّي رسول الله شرّفه |
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ربّ وأرسله للخلق يحييها |
فاق النبيّين في خلق وفي خُلق |
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كالشمس في الأُفق قد فاقت دراريها |
أشبهت بالنجدة الكرّار حيدرة |
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فذاك أوّلها والسبط ثانيها |
كذي الفقار يدي في الحرب حاصدة |
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أعناقهم مثل بري النبت تبريها |
سجيّة الأب إرث الابن يأخذها |
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كرامة الله للأبرار يعطيها |
من عاش بين ليوث الغاب من بله |
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لم يلق في الغاب غير الروح يرديها |
فالرمح للطعن إن سددته عصفت |
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زلازل في الجبال الشمّ تفنيها |
يا نغل سعد إذا الأطماع مانعة |
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من الحقيقة للعينين تجليها |
هلمّ وانظر إلى القتلى مكدّسة |
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وما لها غير علم الله يحصيها |
لئن هززت بكفّي السيف منتضياً |
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فالليث مهجته كالماء أجريها |
وإنّني الأكبر المعروف والده |
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خصال خير الورى في الآل أحكيها |
دمائكم حين يفري السيف هامكم |
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في الطفّ مثل سيول الماء أجريها |
هل من يبارزني نادى بجمعهم |
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مقالة ليس غير القرم يلقيها |
الأُستاذ كاشمري
قال في مشكاة الجنان :
ز برج خيمه طالع شد جمالى |
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تعالى الله جمال بى مثالى |
جمالى مطلع انوار بارى |
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جمالى مهر چرخ شهريارى |
جمالى چشم بد از جسم وى دور |
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که نرجس پيش چشمش بود رنجور |
جمالى آيت کردار داور |
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على بن الحسين شبيه پيامبر |
جمالى جامع الجمع نکوئى |
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نه تنها متّصف بر نيك روئى |
بگرد عارضش خطّى دميده |
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که خطّ نسخ بر يوسد کشيده |
سهى سرو ز بستان امامت |
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بپا فرموده از قامت قيامت |
نه تنها معترف ز حسن او دوست |
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که دشمن گفت شاهى در خور اوست |
براه عشق در عهد جوانى |
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شده عازم براى جانفشانى |
روان شد سوى ميدان شهادت |
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چه پيغمبر به معراج شهادت |
مباراة القطعة بالعربيّة أو تقريب معناها :
جمال بدى من بروج الخيام |
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تعالى الإله الذي جمّله |
وأكمل من نوره نوره |
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ليظهر في الخلق إذ كمّله |
بطرف سبى فيه سحر العيون |
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وقد أسجد النرجس الغضّ له |
حماه اللإلۤه من الحاسدين |
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ومن أعين الخلق أن تشمله |
وسوّاه آيته في الورى |
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وفي شبه المصطفى مثّله |
وقد جمع الخير في ذاته |
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كما جمعت وردة « جنبله » |
وحاز المحاسن غير الجمال |
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ففي كلّ حسن له منزله |
ودبّت ستائر خطّ العذار |
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وأضحت على يوسف مسدله |
وقامته مثل سرو بدى |
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بأرض النبوّه مسترسله |
به جنّ شانئه والصديق |
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فكلّ به من عليّ وله |
فتًى عشق القتل دون الحسين |
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فيالفتىً عاشق مقتله |
لذاك تحدر يوم الطفوف |
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فكان كصاعقة مرسله |
جودى
روان بجانب ميدان على اکبر شد |
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جهان بديدهٴ ليلى ز شب سيهتر شد |
چه برشد از افق خيمه همچه بدر منير |
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جهان ز پرتو رخسار او منوّر شد |
به پيش چشم پدر شد چه در خراميدن |
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رخ حسين ز خوناب ديده احمر شد |
بکف گرفته چه تيغ و نشست چون بعقاب |
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زمانه گفته که حيدر سوار دلدل شد |
چه شد مقابل آن قوم کينه جو گفتا |
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چرا زياد شما را حديث محشر شد |
کشيد تيغ چنان تاخ بر يسار و يمين |
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که ايسر ايمن و ايمن ز تيغش ايسر شد |
ولى دريغ که آن جسم نازنين آخر |
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نشان ناوک و تير سنان و خنجر شد |
ستاره شد بدر خيمه و نظر مىکرد |
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که پاره پاره تن شاهزاده اکبر شد |
بگريه گفت پدر جان تو را خدا حافظ |
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بيا که وعدهٴ ديدار روز محشر شد |
مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب المعنى :
ومذ ركب ابن ليلى للقتال |
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وجرّد فيهم رقش الصلال |
فزاد نهارها حزناً عليه |
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بظلمته على سود الليالي |
بدى من أُفق خيمته منيراً |
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كما ازدانت سماء بالهلال |
وشعّ من الخيام كأنّ شمساً |
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أطلّت من سما هذا الجمال |
وحين رآه والده مغيراً |
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جرى بالدمع حالاً بعد حال |
وما هي أدمع تجري ولكن |
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جرت من عينه إبر المسال |
تجلّى حيدر الكرّار فيه |
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كما قرن المثال إلى المثال |
وأقبل نحوهم فكأنّ حشراً |
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تجلّى تحت مشتجر العوالي |
وفي تيه الطفوف هووا وضلّوا |
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فلم يدورا يميناً من شمال |
وفلّ الليث جمعهم إلى أن |
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تقصّده الثعالب بالنصال |
تعاوى الوحش ينهش فيه حتّى |
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تناثر شلوه فوق الرمال |
رآه السبط منجدلاً صريعاً |
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ملت أعضائه سوح النضال |
بكاه وقال يا ولدي وداعاً |
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ستحضى عند جدّك بالوصال |
وتسعد في النشور غداً بعيش |
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رخيّ عند ربّ ذي جلال |
آتشكده
قالها في مبارزة عليّ الأكبر عليهالسلام :
شاهزاده سوى ميدان شد روان |
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در قفايش بانوان نوحه کنان |
حقّهٴ لب بر ستايش کرد باز |
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که منم فرزند سالار حجاز |
من على بن الحسين اکبرم |
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نور چشم زادهٴ پيغمبرم |
حيدر کرّار باشد جدّ من |
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مظهر نور و نبوّت حدّ من |
تيغ من باشد سليل ذو الفقار |
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که سليل حيدرم در کارزار |
آمدم تا خود فداى شه کنم |
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جان وقاى نفس ثار الله کنم |
اين بگفت صارم جوشن شکاف |
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با لب تشنه برآورد از غلاف |
آنچه مير بدر با کفّار کرد |
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سبط حيدر اندر آن کفّار کرد |
بسکه آن شير دلاور يكتنه |
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زد يلان را ميسره بر ميمنه |
پر دلان را شد دل اندر سينه خون |
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لخت لخت از چشم جوشن شد برون |
شير بچه از عطش بىتاب شد |
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بال لب خشکيده سوى باب شد |
گفت شاها تشنگى تابم ربود |
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آمدم نک سويت اى درياىِ جود |
برده ثقل آهن و تاب هجير |
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صبرم از پا دست گيرا دست گير |
شه زبان از گرفت اندر دهان |
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گوهرى در درج لعل آمد نهان |
تر نکرده کام از او ماه عرب |
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ماهى از دريا برآمد خشک لب |
شاه جم شوکت گرفت اندر برش |
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هشت بر درج گهر انگشترش |
مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب معناه :
قد دخل الحرب عليّ مسرعا |
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وخلفه النساء تجري الأدمعا |
مرتجزاً فيهم أنا ابن المرتضى |
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ليث الحجاز من أطاعه القضا |
أنا عليّ ابن الحسين الأكبر |
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قرّ به عيناً نبيٌّ أطهر |
جدّي عليّ ذلك الكرّار |
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ومن جمالي تصدر الأنوار |
سيفي ذو الفقار في مضائه |
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كأنّني الكرّار في لقائه |
جئت لكي أكون للسبط فدى |
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تقيه روحي اليوم من كيد العدا |
قال وسلّ الصارم المريعا |
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يفلق منها الهام والدروعا |
وما جرى من جدّه في بدر |
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على جموع الطفّ منه يجري |
وجال فيهم في الوغى جول الرحى |
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كالليث للقطيع يخطو فرحا |
ما عرفوا ميسرة من ميمنه |
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هووا كأنّ السيف غشّاهم سنه |
فلا ترى وقد تفانوا رعبا |
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إلّا عفيراً منهم منكبّا |
إن رمقت عين الشجاع الأكبرا |
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من فرج الدرع على الأرض جرى |
عاد إلى أبيه يشكو الظما |
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جفّ من الحرّ فؤاداً وفما |
وقال يا مولى جميع الأُمم |
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هل يستطيع أن يقاتل الظمي |
هيا اسقني وردّني للحرب |
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للطعن في صدورهم والضرب |
فأخرج المولى له لسانه |
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فقل من الكنز بدت جمانه |
رآه في الجفاف مثل المبرد |
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لذاك حرّ قلبه لم يبرد |
فمصّ من خاتمه عقيقه |
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كالشّهد قد خالط منه ريقه |
ميرزا حسين كرماني
المتخلّص بخاكي في رثاء عليّ الأكبر :
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چه ليلى مانده ز آب ديده مجنون وار پا در گِل |
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عنان توسن اکبر گرفت و گفت راز دل |
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الا اى نوجوان رحمى بکن در حالت پيرى |
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ز دنبال تو مىآيم من اى فرزند تأخيرى |
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من آن ليلاى صحراى الم کز از بستم |
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بگردن همچو مجنون از خم زلف تو زنجيرى |
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تو را اى نوجوان شبها بمهد ناز پروردم |
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به امّيدى که امروزم بگيرى دست در پيرى |
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مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب معناه :
ولمّا استحال الطفّ سيلاً بدمعها |
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وضمّت عنان المهر قالت تعاتبه |
ألا ترحم الأُمّ العجوز ورائه |
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تسير كظلّ حيثما سار صاحبه |
ألست التي من عالم الذرّ طوّقت |
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مقلّدها عهد البنين ذوائبه |
صبرت على ليل التمام مقيمة |
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على مهده رفقاً به لا أُجانبه |
وكنت أرى أنّي إذا الشيب هدّني |
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يلين لكي يرعى مشيبي جانبه |
جودى خراسانى
نونهال من بيا تا همچو گل بويت کنم |
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اين دم آخر نظر بر روى نيكويت کنم |
همچه نور از ديدهام اى نور چشمانم مرو |
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تا ز مژگان شانه بر آن سنبل مويت کنم |
سوى قربانگاه روانى اى ذبيح من بيا |
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سرمه از دود دلم بر چشم جادويت کنم |
پيش رويم يك زمان بخرام اى سرو روان |
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تا تسلّى دل از آن قدّ دلجويت کنم |
کعبهام روى تو بود و قبلهام ابروى تو |
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باش يك دم سجده بر محراب ابرويت کنم |
واى بر من کز جفا بايد ز کوفه تا بشام |
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همرهى با قاتل بىرحم بدخويت کنم |
اى دريغا شمر نگذارد دمى در قتلگاه |
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از دل خونين فغان اندر سر کويت کنم |
رأس تو در روبرويم تا چهل منزل دريغ |
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خصم نگذارد دمى تا يك نظر سويت کنم |
مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب معناه :
إليّ إليّ يا ولدي فإنّي |
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أُريد أشمّ فيك شذى الورود |
وأُمتع ناظريّ بحسن وجهٍ |
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كأنّ عليه طالعة السعود |
فأخشى أن تفارقني طويلاً |
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وأن لا نلتقي في ذا الوجود |
تغادر منزلي كضياء عيني |
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وأُغرق في مشاهد منه سود |
هلمّ لكي أُرجّل منك شعراً |
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برمشي يا لهاتيك الجعود |
تمهّل قبل أن تغدو ذبيحاً |
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على اسم الله في أرض الوعود |
وأجعل كحل عينك من فؤادي |
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دخاناً إذ غدى كدخان عود |
بنيّ وقف إلى جنبي قليلاً |
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ليخزى السرو من هذي القدود |
ويا من قبلتي صارت إليه |
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وفي محراب حاجبه سجودي |
فيا ويلي غداة غدٍ سأُسبي |
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وأُحمل في السبا بين القرود |
ويأتي الشمر يضربني بسوط |
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إذا ما سال دمعي في خدودي |
وتشرق أنت في رمح أمامي |
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نظير الصقر صار إلى صعود |
ويضربني العدو لرفع عيني |
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لوجهك إنّ ذا فعل العبيد |
وله أيضاً
وه چه اکبر قدش افکند ز پا طوبى را |
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نور بخشيده رخش مهر جان آرا را |
گيسويش کرده سيه پوش شب يلدا را |
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کرده مجنون ز غم فرقت خود ليلى را |
* * *
هر که ياد از مه رخسار پيمبر مىکرد |
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از فروغ رخ او ديده منوّر مىکرد |
زلف بر عارض او عود بمجمر مىکرد |
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لب لعلش بسخن قصّهٴ کوثر مىکرد |
* * *
وه چه اکبر که برخ شبه پيامبر باشد |
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وه چه اکبر که ببازوى چه حيدر باشد |
تشنه گان را چه غم او ساقى کوثر باشد |
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شافع امّت جدّش صف محشر باشد |
* * *
ديد شهزاده چه بىيارى شاهنشه دين |
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پى تعظيم پدر خم شد و بوسيد زمين |
گفت اى داده شرف فرش تو بر عرش برين |
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خادم بارگه خاص تو جبريل امين |
* * *
نالهٴ اصغر بىشير ز جان سيرم کرد |
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العطش زارى اطفال زمين گيرم کرد |
غم بىيارى تو حالت تصويرم کرد |
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حکم تقدير ازل طعمهٴ شمشيرم کرد |
* * *
شاه گفتا بدلم خوش که خيالى دارم |
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در گلستان جهان تازه نهالى دارم |
روز را همچه تو خورشيد مثالى دارم |
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شب ز ابروى رخت بدر و هلالى دارم |
* * *
دل ليلى ز غم مرگ تو گرديد خراب |
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خانهٴ صبر من از داغ تو گشته استخراب |
از چه بر کشته شدن مىکنى اينقدر شتاب |
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نوجوان اکبر من هست تو را وقت شباب |
* * *
اى قدت سرو خرامان و رخت ماه تمام |
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مهر بنموده فروغ از رخ رخسار تو وام |
پيش رويم دمى اى سرو خرامان بخرام |
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او بره مىشد ومىگفت حسين در هر گام |
* * *
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حيف از اين سرو خرامان که ز پا مىافتد |
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آه کاين مرغ خوش الحان ز نوا مىافتد |
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مباراة الشعر أو تقريب معناه بالعربيّة :
يا لذاك القدّ لمّا ركعت طوبى له |
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إنّه قدّ عليّ ربّه جمّله |
نوره الكون جميعاً بالسنا جلّله |
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جعده قد صبغ الليل سواداً مثله |
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وأصاب الأُمّ ليلى بالفراق الوله |
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* * *
ومن اشتاق لرؤيا المصطفى في البشر |
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جائه كي يكحل العين بنور الأكبر |
وكأنّ الصدغ في العارض عود المجمر |
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ثغره يروي لنا قصّة حوض الكوثر |
* * *
إنّه في نوره شبه النبيّ الأطهر |
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وله النجدة إرث من أبيه حيدر |
كيف يظمى وهو في المحشر ساقي الكوثر |
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وهو الشافع في الأُمّة يوم المحشر |
قد رأى السيط وحيداً ما له من ناصر |
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جائه يلتمس الإذن كليث خادر |
وهوى للأرض في قرب أبيه الطاهر |
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إنّه في مهده شرّف عرش القادر |
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وله جبرئيل أمسى خادماً في الغابر |
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* * *
عطش الأصغر قد أفقدني حبّ الحياة |
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وصغار مثله يبكون من ظلم الجناة |
إنّهم عطشى يلوجون بحضن الأُمّهات |
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وحدة السبط لقد رقّ لها قلب الصفاة |
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إنّه الجبّار قد قدّر لي هذا الممات |
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* * *
فأجاب السبط أضحى أملي فيك بُنيّا |
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إنّ عندي من رياض المصطفى ورداً جنيّا |
أنت في الإصباح مثل الشمس أشرقت مضيّا |
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وهلال طالع في الليل إن جنّ عليّا |
* * *
قلب ليلى ذاب فيه اتّقدت نار الفراق |
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وهوى صبري وانهار على أرض العراق |
أيّها المبعد هل يأذن ربّي بالتلاق |
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أنت بدر فلم اخترت على التمّ المحاق |
* * *
قدّك السرو وفي طلعتك البدر المنير |
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مشرق من برج خدّيك ملا العالم نور |
سر أمامي لأرى في قدّك السرو يسير |
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فمشى والسبط يدعو الله بالصوت الجهير |
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يا لهذا السرو اذ يعقر في القفر الجديب |
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وبأرض الطفّ إذ يخنق لحن العندليب |
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منتخب من خزائن المراثي
باز وقت آمد که از داغ پسر |
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در جگرگاه پدر افتد شرر |
کس نبود غير از بنى هاشم بجا |
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جز على اکبر شبيه المصطفى |
ديد چون بىيار باب خويش را |
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در حرم آن هول و آن تشويش را |
گفت کاى بابا به اکبر اذن جنگ |
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ده که دل از زندگانى گشته تنگ |
چند بينم عمههاى خون جگر |
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خواهران را اشک ريزان از بصر |
بشنوم تا کى صداى العطش |
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کودکان از تشنگى در حال غش |
سير اکبر بپدر زين زندگى است |
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گر رهم زين زندگى پايندگيست |
داد اذن جنگ بر وى بىدرنگ |
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و از برش آويخت تيغ آب رنگ |
چشم فرزند گرامى بوسه داد |
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آه آتش بار آورد از نهاد |
شاهزاده سوى ميدان کرد رو |
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چشم بر اشک و حسين دنبال او |
تاخت انوار رخش بر آن گروه |
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همچه نور مهر بر هر سنگ و کوه |
گفت کاى نمروديان بد مرام |
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مردمان کوفه نامردان شام |
من علىّ بن الحسين الاکبرم |
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در شباهت ثانى پيغمبرم |
تيع من باشد همال ذو الفقار |
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شير بگريزد ز من در کارزار |
گر فشارم پاى اندر روز جنگ |
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خصم روبه گردد ار باشد پلنگ |
آنچنان که برگ ريزد در خزان |
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سر ز تنها بر زمين ريزم چنان |
در شجاعت وارث آبا منم |
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حامى آل نبى تنها منم |
اين بگفت و با حسام پر شرر |
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کرد آن لشکر همه زير و زبر |
هر کجا راندى عقاب تيز بال |
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از سر و پيكر زمين بد مال مال |
هر که ديد اندست تيغ و کارزار |
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گفت پشت زين على دارد قرار |
حمله چون ضيغم بروباهان فکند |
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دست و سرها از تن شجعان فکند |
مىزد ومىگشت مىافکند زار |
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داد لشکرها ز سنگرها فرار |
مرّه بن منقذ آن شرّ لعين |
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از عقب بر تارکش زد تيغ کين |
تا به ابرو فرق شه زاده شکافت |
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قوّتش از دست و بازو سربتافت |
خواست تا خالى کند پا از رکاب |
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بر سر خود خوان ماتم ديده باب |
کاى پدر ز اکبر بتو بادا سلام |
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گشته جدم حاضر اينجا با دو جام |
يك بمن بنمود وسيرابم نمود |
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يك براى تست هان بشتاب زود |
مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب معناه :
وجائت النوبة يوري الولد |
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ناراً بقلب والد تتّقد |
من هاشم لم يبق غير الأكبر |
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شبه النبيّ المصطفى بالمنظر |
ومذ رأى الحسين لا نصير له |
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وحرم الأطهار عمّها الوله |
جاء يريد الإذن من أبيه |
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بجسمه وروحه يفديه |
قد ضاق صدري من تنمّر العدى |
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جئتك كي أكو للدين فدىٰ |
أنظر عمّاتي بنار الحزن |
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وأدمع النساء مثل المزن |
وصيحة الأطفال من نار الظما |
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هووا بأحضا النساء جثّما |
كرهت هذا العيش من وجودي |
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وبعده أمضي إلى الخلود |
فأذن السبط له بالحرب |
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وزانه بباتر للضرب |
وطبّع القُبلة فوق خدّه |
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بل جمرة من قلبه ووقده |
كأنّه الموت إلى الحرب سرى |
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ومدمع السبط بأثره جرى |
وشّع نوره على الأرجاء |
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كالبدر لاح فوق كربلاء |
ناداهم يا شيعة النمرود |
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يا مشبهي الكلاب والقرود |
يا عسكر الكوفة يا أهل الخنا |
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أنتم وأهل الشام أولاد الزنا |
أنا عليّ بن الحسين الأكبر |
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نوري من نور النبيّ يزهر |
أحمل في كفّي ذا الفقار |
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يسحتكم كشعلة من نار |
خصمي لا يجيد إلّا الهربا |
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إن كان ليثاً صار منّي ثعلبا |
أنثركم نثر الخريف للشجر |
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أرمي رؤوسكم كما ترمى الأكر |
ورثت من آبائي البساله |
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أصون من قدس النبيّ اله |
يقول هذا وهو بالحسام |
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يصول مثل الأسد الضرغام |
بدّد شمل الكفر بالبيداء |
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وملأ الأرض من الأشلاء |
كأنّه العقاب في الهواء |
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قد ملك الأرض مع السماء |
وكلّ من رآه قال حيدره |
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يكيلنا بالسيف كيل السندره |
هذا أبو الحسين ليس الأكبرا |
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وأخذ العدوّ يمشي القهقرىٰ |
صال عليهم بالحسام ضاربا |
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كأسد يطارد الثعالبا |
يضربهم يقتلهم يرميهم |
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وراح في حسامه يفنيهم |
وجاء مرّة بن منقذ الردي |
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جلّل بالنجيع نور أحمد |
جاء من الخلف وفي يديه |
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سيف وأسدى ضربة إليه |
وشقّ فرقه إلى الحواجب |
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مصيبة من أعظم المصائب |
وخرّ للأرض شبيه المصطفى |
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فقال والد على الدنيا العفا |
أخرج رجله من الركاب |
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وخرّ للوجه على التراب |
فجائه الحسين مثل الصقر |
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ينقضّ والجواد فيه يجري |
نادى عليّ يبلغ السلاما |
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والده والأهل والأعماما |
وقال هذا جدّي النبيّ |
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ومعه من الجنان الري |
قد جائني بكفّه كأسان |
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لي واحد وللحسين الثاني |
أرواني الجدّ بماء عذب |
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من كأسه فحيّهل للشرب |
جوهري
در آن دم بشهزادهٴ جنگجو |
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بلا حملهور گشت از چار سو |
يكى نيزه مىزد به بازوى او |
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يكى نيش خنجر به پهلوى او |
چه ابر اجل تيره شد بر سرش |
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ز بس تير باريد بر پيكرش |
ز بحر زره چشمها شد عيان |
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ز هر چشمهاى جوى خون شد روان |
ز رمحى که بر سينه خورد از قضا |
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تو گفتى که بر کنج خفت اژدها |
ز تيغى که بر جبهه خورد از قدر |
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عيان شد به کفّار شقّ القمر |
ز بس تير باريد بر آن جناب |
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عقابش برآورد پر چون عقاب |
مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب معناه :
ولمّا هوى الضرغام في الأرض شلوه |
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أحاط به الأوغاد من كلّ جانب |
ودار به الآلاف ما بين طاعنٍ |
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بمغوله والرمح أو بين ضارب |
فأعضائه وزّعن في كفّ ضارب |
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وصارمه والدرع في كفّ سالب |
لهالله ما بين العدى لو رأيته |
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لكنت رأيت الليث بين الثعالب |
وجلّله سحب المنيّة بالقنا |
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كما هطلت ديماء سحّاً لشارب |
بدت من بحار الدرع حمر عيونهم |
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كموج دماء أحمر اللّون واثب |
وخلت القنا إذ شقّت الصدر أبرزت |
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كنوزاً تغشّاها نجيع الترائب |
وليلة شقّ البدر آية جدّه |
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بدت لعيون القوم من شقّ جانب |
وغشى جواد الأكبر النبل منهم |
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ثياباً من النشّاب حمر المضارب |
جودى
بابا بيا که تيغ جفا ساخت کار من |
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برگى نچيده گشت خزان نوبهار من |
قاتل مرا زخنجر کين پاره پاره کرد |
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رحمى نکرد بر مژهٴ اشکبار من |
تا بر تنم بود رونقى در سرم بيا |
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بنگر بوقت مرگ بر احوال زار من |
از تيغ ظلم رشتهٴ عمرم ز هم گسيخت |
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ليلا بگو دگر نکشد انتظار من |
مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب معناه :
هلمّ أبي فالسيف شقّ مفارقي |
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وعصف خريف العمر جرّد أغصاني |
وقطّعني الباغي بصارم حقده |
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وما لان من دمعي عليكم بأجفاني |
هلمّ أبي واسرع لموضع مصرعي |
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وبي رمقٌ أخشى بأن لست تلقاني |
قضى عمري بالسيف من ضرب ظالم |
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أبي قل لليلى بعدها لا ترجّاني |
قال الشيخ علي ابن شيخ العراقين
چه رفت از دست عشق شاه دلبند |
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روان شد از پى گمگشته فرزند |
صف دشمن دريدى از چپ و راست |
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نواى الحذر از نينوا خاست |
عقابى ديد ناگه پر شکسته |
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على افتاده زين از هم گسسته |
برخسارش نقاب از خون کشيده |
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به جانان بسته جان از خود بريده |
شده شقّ القمر سر تا جبينش |
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بخون آغشته زلف عنبرينش |
ز ضرب نيزه و تير و سنانش |
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شده جسمش مقطّع جان فدايش |
فرود آمد ز زين آن با جلالت |
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چه پيغمبر ز معراج رسالت |
نهادى بر سر زانو سرش را |
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همى بوئيد خونين پيكرش را |
برآورد از دل تفتيده آهى |
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که سوزانيد از مه تا بماهى |
مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب معناه :
ولمّا هوى قلب الحسين بكربلا |
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وقد نال منه السيف عاد بلا قلب |
فصال على الأعداء يبغي صفوفهم |
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ففرّوا بعيداً يحذرون من القرب |
رأى الصقر معفور تكسّرت |
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قوادم جنحيه من الطعن والضرب |
تنقّب بالقاني وأسلم روحه |
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فأسلم مولانا الحسين إلى الكرب |
كما شقّ بدر في السماء لجدّه |
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لقد شقّ وجه الطهر بالسيف في الحرب |
وبالدم حين أحمر حالك شعره |
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تمشّى عبيراً منه في ذلك الترب |
غدا أرباً بالضرب والطعن جسمه |
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أفديه في جسمي وبالروح في جنبي |
ترجّل من ظهر الجواد لشبله |
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كمعراج خير الخلق في كلل الحجب |
وقد وضع الرأس الشريف بحجره |
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وناح عليه مثل هاطلة السحب |
وراح يشمّ النحر ينفح مسكه |
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وخافقه من حزنه بيد النهب |
وأرسل في الوادي من القلب جمرة |
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بها أشعل الدنيا من الأرض للشهب |
الأشعار التالية مزجها صاحبها مع أشعار « آتشكده »
وكيف ما كان فرحمة الله على قائلها :
پس بيامد شاه اقليم الست |
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بر سر نعش على اکبر نشست |
چون ز خيمه تاخت پاره با شتاب |
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ديد حيران اندر آن صحرا عقاب |
برگ زين برگشته بگسستته لجام |
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آسمانى ليك بىبدر تمام |
ديد روى يوسفى را چون بشير |
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ليك در جنگال گرگانش اسير |
ديد آن باليد سرو نازنين |
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اوفتاده در ميان دشت کين |
گلشنى نورسته اندام تنش |
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زخم پيكان غنچهاى گلشنش |
با همه آهن دلى گريان بر او |
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چشم جوشن اشکخونين موبمو |
کرده چون اکليل زيب فوق سر |
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شبه احمد معجزش شقّ القمر |
بر سر زانو نهاد آن دم سرش |
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سيل خون جارى شد از چشمِ ترش |
سر نهادش بر سر زانوى ناز |
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گفت کاى باليده سرو سرفراز |
چون شد انباليدنش در باغ حسن |
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اى بدل بنهاده مه را داغ حسن |
اى درختان اختر برج شرف |
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چون شدى سهم حوادث را هدف |
چهر عالم تاب بنهادش بچهر |
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شد جهان تا از قران ماه ومهر |
گفت کاى باب دلم را خون مکن |
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زادهٴ ليلى مرا مجنون مکن |
خيز تا بيرون از اين صحرا رويم |
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يا بسوى خيمهٴ ليلى رويم |
اين بيابان جاى خوبان ناز نيست |
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ايمن از صيّاد تيرانداز نيست |
اى بطرف ديده خالى جاى تو |
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خيز تا بينم قد و بالاى تو |
اى نگارين آهوى مشکين من |
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اى تو روشن چشم عالم بين من |
رفتى بردى ز قلبم تيب وتاب |
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اکبرا بادا جهان بعدت خراب |
گفتمت باشى مرا تو دستگير |
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اى تو يوسف من تو را يعقوب پير |
تو سفر کردى آسودى ز غم |
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من در اين وادى گرفتار الم |
سرنگون گشتى چه از اسب عقاب |
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عرش حق افتاد اندر اضطراب |
مهرو رويت بود جذّاب قلوب |
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آفتاب من چرا کردى غروب |
اى شبيه مصطفى بار دگر |
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لب گشا و کن تکلّم با پدر |
کى زده اين زخم کارى بر سرت |
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در حرم از غم بميرد مادرت |
پرده بر رخ برفکن اى دلفکار |
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تا شود نور خدائى آشکار |
لعن لخندانت چرا گشته خموش |
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گوئيا از تشنگى رفته ز هوش |
بر رخت از خون عقاب انداختى |
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پرده روى آفتاب انداختى |
زينب از خيمه برآمد با قلق |
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ديد ماهى خفته در زير شفق |
اى جگر ناليد کاى ماه تمام |
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بى تو بر من زندگى بادا حرام |
شه بسوى خيمه آوردش ز دشت |
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وه چه گويم من چه بر ليلا گذشت |
مباراة الشعر بالعربيّة أو تقريب معناه :
وجاء أمير العالمين لشبله |
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فألفاه مصروعاً عفيراً مترّبا |
وظلّ على الجثمان ينثر دمعه |
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فصار الثرى من جريه ينبت الكبا |
رأى فرساً ينحوه من غير فارس |
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كمثل عقاب طار بالجوّ متعبا |
تنائى به سرج وخلّى عنانه |
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كمثل سماء بدرها قد تغيّبا |
ولاح على بينهم مثل يوسف |
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ولكن رأى من حوله القوم أذؤبا |
رأى قدّه كالسرو قد لامس الثرى |
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وكان تثنّيه إذا هبّت الصبا |
كما زانت الروض النضير شقائق |
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بدى الجسم منه بالدماء تحجّبا |
وراح عليه الدرع يبكي بأدمع |
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حرار كجرح بالدماء تصبّبا |
بدى الجرح أكليلاً بمفرق رأسه |
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كما شقّ بدر للنبيّ فأعجبا |
وقد وضع الرأس الشريف بحجره |
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حسين وسال الدمع قانٍ على الربى |
ثنى السبط رجليه وشال برأسه |
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ونادى بصوت يؤلم الفضل والإبا |
أيا دوحة مدّت على الأرض ظلّها |
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وصارت لحران خباءاً مطنّبا |
فكيف هوت للأرض بعد سموّها |
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وصارت مجالاً للبغاث وللدبى |
ويا زهرة طابت بأرض زكيّة |
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وتنفح فينا العطر ما هبّت الصبا |
فكيف غدت جرحاً بقلبي غائراً |
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وإنّ من الآلام جرحاً محبّبا |
فيا عجباً يغتالك الدهر ظالماً |
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وقد لحّت في برجل الهداية كوكبا |
وعهدي به ضاء الوجود بنوره |
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وقد كان نور الله نورك لا خبا |
أضاء به وجه الزمان منوّراً |
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كما طارد البدران في الأُفق غيهبا |
ويا فلذة أدمى فؤادي بفقده |
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أترضى بأن أحيا وحيداً معذّبا |
هلمّ بنا نذهب لليلى فإنّها |
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بخيمتها ترنو إليك مغيّبا |
وإلّا فقم نترك كلانا بكربلا |
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وموقعها قفراً يضمّك مجدبا |