أيّها الغرّيد لم لم تنطلق |
|
نغمات كقصار السور |
الظما أسكته أم إنّه |
|
ما رأى نور أبيه المسفر |
كيف يسطيع ظمئ عاطش |
|
ينغني بحشى منفطر |
أم لعلّ السهم في حلقومه |
|
نابت يا للمصاب الأكبر |
جسمه الرخص على ما ناله |
|
هو كالبرعم لم ينتشر |
فيه من وقع الظما مسّ اللظى |
|
وعلى قلبي وخز الأُبَر |
لعتاق الطير أمسى طعمة |
|
مزّقت أعضائه بالمنسر |
ودّع المهد فلم يرجع له |
|
مثلما ودّعني مصطبري |
فارقت عيني منه طلعة |
|
كجمال الروض غبّ المطر |
ظامئ يسقى نبالاً صوّبت |
|
لفم ما زال لمّا يثغر |
أتراه ملّ من حرّ الظما |
|
فمضى ضيفاً لساقي الكوثر |
إنّني أودعت فيه أملي |
|
يا لغرسي أملاً لم يثمر |
ولقد أصحرت في أرض البلا |
|
بعد أن نال القضا من شجري |
يحرم الماء فيرمى باكياً |
|
قلبه من ظمأ بالشرر |
وأنا أنظر ما لي حيلة |
|
ليتني قد كفّ منّي بصري |
من رأى العاطش يسقى نبلة |
|
إنّها والله إحدى الكُبَر |
يا فؤاداً نزعت رجمته |
|
خصمك الرحمن باري البشر |
ويك لم تعطف على والدة |
|
شيّعته بفؤاد ذعر |
أيّ وغد بين برديك اغتدى |
|
آدميّ الشكل وحش المخبر |
لعنة الله على حرملة |
|
لعنة تورده في سقر |
أسفاً يُذبَح طفلي ظامئاً |
|
أسفاً لا ينقضي للمحشر |