فلم أر إلا طالبا لرياسة |
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وجمّاع أموال وشيخا مرائيا |
قبضت يدي عنهم وآثرت عزلة |
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عن الناس واستغنيت بالله كافيا (١) |
قال العز بن جماعة : وخاطب والدي وقد أبلّ (٢) من ضعف أشيع فيه موته مهنئا له: [بحر المتقارب]
أدام الإله لك العافيه |
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وصيّر دور العدا عافيه |
إذا لاح من بدركم نوره |
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فكل النجوم به خافيه |
تخذت كلام الإله الدوا |
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فآياته كانت الشافيه |
تشوّف ناس لمنصبكم |
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ورتبتهم للعلا نافيه (٣) |
فأين العلوم وأين الحلوم |
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وخلق موارده صافيه؟ (٤) |
هم عصبة لا تنال العلا |
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ولو أنها قد سعت حافيه |
إذا كان خرق تداركته |
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وليست لما مزقت رافيه (٥) |
فإن عنّ خطب ثبتّ له |
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وآراؤهم عنده هافيه |
سجاياك لين ورفق بنا |
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وأخلاقهم كلها جافيه |
تصلي على سبعة منهم |
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وثامنهم نفسه طافيه |
يقيمون في تربهم همّدا |
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وتسفي على قبرهم سافيه |
فلا زلت في صحة دائما |
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تجر ذيول السنى ضافيه |
ويوردك الله عين الحياة |
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فتحيا بها مائة وافيه |
فإن زاد عشرا فذاك المنى |
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وعشرون أيضا هي الكافيه |
وهذي القوافي أتت كمّلا |
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فلم تبق لي بعدها قافيه |
وقال رحمه الله تعالى أيضا : [بحر الرمل]
خلق الإنسان في كبد |
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بوجود الأهل والولد |
كل عضو فيه نافعه |
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غير عضو ضر للأبد |
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(١) آثرت : فضلت.
(٢) أبلّ : شفي.
(٣) تشوف : تطلع.
(٤) الحلوم : العقول.
(٥) رفى الثوب : أصلح ما فسد منه ، أو خاط ما تمزق منه.