قلت للكاتب الذي ما أراه |
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قط إلا ونقّط الدمع شكله |
إن تخطّ الدموع في الخد شيئا |
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ما يسمى؟ فقال خطّ ابن مقله |
وأنشدني هو من لفظه لنفسه :
سبق الدمع بالمسير المطايا |
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إذ نوى من أحبّ عني نقله |
وأجاد الخطوط في صفحة الخ |
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دّ ولم لا يجيد وهو ابن مقله |
وأنشدني في مليح نوتيّ : [بحر الطويل]
كلفت بنوتيّ كأن قوامه |
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إذا ينثني خوط من البان ناعم (١) |
مجاذفه في كل قلب مجاذب |
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وهزاته للعاشقين هزائم |
وأنشدته أنا لنفسي : [بحر الخفيف]
إنّ نوتيّ مركب نحن فيه |
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هام فيه صبّ الفؤاد جريحه |
أقلع القلب عن سلوّي لما |
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أن بدا ثغره وقد طاب ريحه |
وأنشدته لنفسي أيضا : [بحر مخلع البسيط]
نوتيّنا حسنه بديع |
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وفيه بدر السماء مغرى |
ما حك برّا إلا وقلنا |
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يا ليت أنا نحك برّا |
فأعجباه رحمه الله تعالى ، وزهزه لهما (٢).
وأنشدني هو لنفسه في مليح أحدب : [بحر المتقارب]
تعشقته أحدبا كيسا |
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يحاكي نحيبا حنين النّعام |
إذا كدت أسقط من فوقه |
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تعلقت من ظهره بالسّنام |
فأنشدته لنفسي : [بحر السريع]
وأحدب رحت به مغرما |
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إذ لم تشاهد مثله عيني |
لا غرو إن هام فؤادي به |
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وخصره ما بين دفين |
وأنشدني من لفظه لنفسه في أعمى : [بحر البسيط]
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(١) الخوط : الغصن الناعم. والبان : شجر لين ، طويل الورق أبيض الزهر تشبه به قدود الحسان في الليونة والتثني.
(٢) زهزه : أبدى السرور ، وقال : «زه ، زه». وزه : كلمة استحسان.