البيت |
|
|
القائل |
الصفحة |
وما أمّ خشف خلّفته وبكّرت |
|
لتكسبه طعما وعادت إلى العشّ |
|
٤٤٢ |
حرف العين
لا تنكروا غزر الدّموع فكلّما |
|
ينحلّ من جسمي يصير دموعا |
|
٩٤ |
وأغيد معسول الشّمائل زارني |
|
على فرق والنّجم حيران طالع |
|
٢٠٥ |
ومن كان مستهترا بالملاح |
|
وكان من الصفر صفرا صفع |
محمد بن عبد الواحد |
٣١٠ |
أرى النّاس في الدّنيا كراع تنكّرت |
|
مراعيه حتّى ليس فيهنّ مرتع |
|
٤٤٤ |
لقد مات من يوعى الأنام بعلمه |
|
وكان له ذكر وصيت فينفع |
|
٤٥٤ |
حرف الفاء
أسير الخطايا عند بابك واقف |
|
على وجل ممّا به أنت عارف |
|
٨٣ |
انظر إلى جبل تمشي الرجال به |
|
وانظر إلى القبر ما يحوي من الصّلف |
|
٩٠ |
حرف اللام
اشتر العزّ بما شئت |
|
فما العزّ بغال |
الشريف المرتضى |
١٥١ |
ربّ القريض إليك الحلّ والرّحل |
|
ضاقت إلى العلم إلا نحوك السّبل |
المننبي |
١٩٢ |
هذا وأنت ابن بوّاب وذو عدم |
|
فكيف لو كنت ربّ الدّار والمال؟ |
|
٣٢٧ |
ولاح هلال مثل نون أجادها |
|
بذوب النّضار الكاتب ابن هلال |
المعرّي |
٣٢٨ |
أعطى وأكثر واستقلّ هباته |
|
فاستحيت الأنواء وهي هوامل |
التهامي |
٤٠٤ |
حرف الميم
قفوا تشهدوا بثّي وإنكار لائمي |
|
عليّ بكائي في الرّسوم الطّواسم |
|
٩٤ |
يولّي ويعزل من يومه |
|
فلا ذا يتمّ ولا ذا يتمّ |
|
٩٥ |
وأنت وحسبي أنت تعلم أنّني |
|
... إمام المجد يبني ويهدم |
|
٤٤٤ |
حرف النون
زيادة المرء في دنياه نقصان |
|
وربحه غير محض الخبر خسران |
علي بن محمد |
٤٧ |
عجبا يهاب اللّيث حدّ سناني |
|
وأهاب لحظ فواتر الأجفان |
|
١٥٩ |
إليك جئنا وأنت جئت بنا |
|
وليس ربّ سواك يغنينا |
|
١٦٣ |