فقال في الذكر وما |
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كان حديثا يفترى |
هذا صراطي فاتبعوا |
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وعنهم لا تخدعوا |
فخالفوا ما سمعوا |
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والخلف ممن شرعوا |
واجتمعوا واتفقوا |
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وعاهدوا ثم التقوا |
إن مات عنهم وبقوا |
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ان يهدموا ما قد بنى |
وله :
وأنت صراطه الهادي اليه |
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وغيرك ما ينجى الماسكينا |
وله :
علي ذا صراط هدى |
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فطوبى لمن اليه هدى |
وله :
وله صراط الله دون عباده |
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من يهده يرزق تقى ووقارا |
في الكتب مسطور مجلى باسمه |
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وبنعته فاسأل به الأحبارا |
العوني :
إمامي صراط الله منهاج قصده |
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إذا ضل من أخطا الصواب عن السبل |
ابن مكي :
فان يكن آدم من قبل الورى |
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نبي وفي جنة عدن داره |
فان مولاي علي ذو العلى |
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من قبله ساطعة أنواره |
تاب على آدم من ذنوبه |
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بخمسة وهو بهم اجاره |
وان يكن نوح بنى سفينة |
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تنجيه من سيل طمى تياره |
فان مولاي علي ذو العلى |
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سفينة ينجى بها أنصاره |
وان يكن ذو النون ناجى حوته |
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في اليم لما كضه حضاره |
ففي جلندى للأنام عبرة |
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يعرفها من دله اختياره |
ردت له الشمس بأرض بابل |
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والليل قد تجللت أستاره |